तृष्णा ही है हमारे दु:खों की गंगोत्री:-स्वामी विवेकानन्द गिरि।।
तृष्णा ही है हमारे दु:खों की गंगोत्री:-स्वामी विवेकानन्द गिरि।।

सिरसा-(अक्षित कम्बोज):- स्वामी तुरीयानन्द सत्संग सेवा आश्रम, 170 सी ब्लाक नई अनाज मण्डी में आराध्य सतगुरु ब्रह्मलीन श्री श्री 1008 स्वामी तुरीयानन्द महाराज एवं ब्रह्मलीन श्री श्री 1008 स्वामी अचलानन्द गिरि महाराज की मधुर स्मृति में स्वामी तुरीयानन्द ट्रस्ट (रजि.) सहारनपुर द्वारा मुख्य आश्रम सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) के गद्दीनशीन श्री श्री 1008 स्वामी विवेकानन्द गिरि महाराज के संरक्षण में हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी वार्षिक समागम, संत प्रवचन एवं विशाल भण्डारे का आयोजन किया गया। इस कार्यक्रम के तहत रविवार को प्रथम नवरात्रे पर प्रात: हवन यज्ञ एवं अल्पाहार के पश्चात संकीर्तन व संत प्रवचन हुए। स्वामी जी ने अपने दिव्य प्रवचनों के माध्यम से समस्त संगत एवं शहर से आयी संगत पर अमृत वर्षा करते हुए कहा कि सभी व्यक्तियों के जीवन में यह समय आता है, जब शरीर जर्जर और बूढ़ा हो जाता है। इन्द्रियों की शक्ति क्षीण हो जाती है। कर्म, इन्द्रियां व ज्ञान इन्द्रियां शिथिल पड़ जाती है। दैनिक जीवन के कार्य में भी उसे ओरों के ऊपर निर्भर रहना पड़ता है, परन्तु बदनसीबी से तृष्णा सदैव जवान रहती है, बुढ़ापे का उदास साया, उसकी और आंखें भी नहीं दिखा सकता। मनुष्य की आकांशायें/तृष्णाएं ऐसी लम्बी नदी के समान है, जिसका ओर-छोर नजर नहीं आता। यानि जिसका न आदि है न अंत है। हमने अपनी कामनाओं/तृष्णाओं को अपने जीवन का गणतव्य लक्ष्य बना लिया है। कैरियर बनाना, पैसे इकटे करना, शादी करना व बच्चे पैदा करना तथा उन बच्चों का कैरियर बनाना, शादियां करना, फिर उनके बच्चों का कैरियर बनाना और अन्त में मृत्यु को पा जाना ही अन्तिम बुलावा है। किसी लोक कवि ने लिखा है मात कहे मेरा हुआ बड़ेरा, काल कहे मैं आई रे, अर्थात माता अपने बच्चे को बड़ा हुआ देखकर खुश होती है और उधर मृत्यु कहती है में निकट आ रही हूँ। तृष्णा का स्वभाव ऐसा है कि जैसे-जैसे मनुष्य की कामनाएं पूर्ण होती जाती है, वैसे-वैसे तृष्णा की लपटें और तीव्र व प्रचण्ड होती जाती है। शुरू में बहुत से लोग कहते हैं कि मेरे पास बस इतना ही हो जाये, लेकिन उसकी पूर्ति होते ही तृष्णा की धार फिर आगे की ओर बढ़ जाती है। आगे बढ़ते-बढ़ते जीवन लीला समाप्त हो जाती है। सुक्रात, जो यूनान के महान दार्शनिक थे व जिसे पश्चिमी दर्शन का जनक कहा जाता है और पश्चिमी सभ्यता के विकास में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है, का कथन है कि तृष्णा/संतोष/तृप्ति/संतुष्टि की शत्रु है। वह जहां भी पैर जमाती है, संतोष को भगा देती है। तृष्णा जैसा साथी ढूंढने पर भी नहीं मिलेगा, संगी साथी, घर परिवार, पद प्रतिष्ठा, लोक संग्रह, स्वास्थ्य, धन आदि सभी परिस्थितियां विशेष यानि समय के साथ छूट है, लेकिन तृष्णा ऐसी है वह छूटती ही नहीं। श्री रामचरित मानस में श्री राम जी ने तृष्णा के सम्बन्ध में संसार में जितने दु:ख है उन सब में, तृष्णा ही सबसे अधिक दु:खदायी है, जो कभी घर से बाहर नहीं निकलता है, उसे भी तृष्णा बड़े संकट में डाल देती है। आश्चर्य की बात यह है कि जो व्यक्ति घर परिवार के झंझटों से मुक्त होने के लिए सब कुछ छोडक़र संन्यास दीक्षा लेकर किसी आश्रम में आसरा ले लेता है, वहां भी तृष्णा, जोंक की भांति उसके साथ चिपकी रहती है भोग और तृष्णा मनुष्य के सब दु:खों की जड़ है। शरीर के लिए आवश्यक वस्तुओं के भोग को तृष्णा नहीं कहते, जब वस्तुओं की लालसा बढ़ जाती है, उसे तृष्णा कहते है। वही मनुष्य में विषय वासना उत्पन्न करती हैए जो अनर्थ की जड़ है। मन में जब तृष्णा का अंकूर फूटता है, तब बहुत कुछ अच्छा लगता है, अन्त में वही तृष्णा ही उसे खा जाती है। मनोवैज्ञानिक बताते हैं कि आजीवन कारावास कैदियों के हृदय में भी तृष्णा, ताना बाना बुनती रहती है, तृष्णा उन्हें भी नहीं छोड़ती एकांतवासी तृष्णा के मोह-पास से नहीं बच सके । तृष्णा इस आनंद पूर्ण एवं शांत जीवन को संशय, क्रोध, व्याकुलता और आपा धापी से भर देती है। प्रवचनों के अन्त में स्वामी जी ने भजनों की अमृत वर्षा की। कार्यक्रम के अन्त में स्वामी जी ने विशाल संगत व शहर के गणमान्य व्यक्तियों को आशीर्वाद दिया।। #newstodayrhy @newstodayrhy